भूमिका
झारखण्ड एक वन बहुल प्रदेश है। इस राज्य का भौगोलिक क्षेत्रफल 79714 वर्ग कि0मी0 है। यहाँके वनों में मुख्य रूप से साल एवं इसकी सहयोगी प्रजातियाँ यथा आसन] गम्हार] करम] बीजा, खैर, सलई] धौ, सेमल, जामुन, महुआ इत्यादि पाए जाते है।
प्राकृतिक पुर्नजनन मूलतया बीज से संभव होता है। यह साधारणतया उत्पति, परिक्षेपण (dispersal) बीज अंकुरण तथा स्थापना (establishment) पर निर्भर करता है। प्राकृतिक पुर्नजनन हेतु बिजौलों (seeding) का स्थापना अत्यंत ही महत्वपूर्ण कड़ी होता है, जिन्हें निम्न कारक प्रभावित करते हैः-
क) जड़ों का विकासः- अंकुरित होने के कुछ समय पश्चात तक तो पुर्नजनन बीज पत्रों में एकत्रित भोजन पर निर्भर रहता है परंतु शीघ्र ही उसे अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ता है और इसके लिए उसे अपनी जड़] भूमि में स्थाई जल तक पहुँचा देना चाहिए अन्यथा वर्षा के बाद होने वाले सूखे के कारण उसके मर जाने की संभावना बढ़ जाती है। जिन प्रजातियों की जड़े शीघ्रता से नही बढ़ती उनमें पुर्नजनन मृत्यु उतनी ही अधिक होती है।
ख) भूमिकारकः- बिजौलों को अपना भोजन मृदा से ही इकठ्ठा करना पड़ता है। ऐसी दशा में मृदा दशाओं की अनुकूलता नितांत आवश्यक है। मृदा में उचित आर्द्रता होनी चाहिए। आर्द्रता की अधिकता या कमी दोनो ही पुर्नजनन के लिए हानिकारक होती है। मृदा में पोषक तत्वों की कमी भी बिजौलों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। यदि मृदा पर बिना सड़े हुए पत्तों का ढ़ेर हो जाता है तो वह भी पुर्नजनन की स्थापना में बाधक होता है। इसी प्रकार भूमि वातन भी पुर्नजनन स्थापना की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
ग) प्रकाशः- बिजौलों के लिए प्रकाश आवश्यक है। प्रत्येक प्रजाति की आवश्यकता भिन्न-भिन्न होती है।
घ) जलवायू कारकः- तापमान की अधिकता एवं कमी दोनो ही बिजौलों के लिए हानिकारक है। साथ ही वर्षा की केवल उचित मात्रा ही वरन् उसका वार्षिक वितरण भी अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
ड.) अन्य कारकः- घास, खर-पतवार, अन्य स्पर्धी (competing) पौधोंकीदशा, आग, चराई तथा पल्लवचारण (browsing) भी प्राकृतिक पुर्नजनन को प्रभावित करते है।